हिन्दीकविता
विभाजित निवाले
घर के भितर...
थालियाँ सजती हैं...
गर्म रोटियों की भाप उठती है...
सब्जÞी की सोंधी महक घुलती है,
दुध, दही, और घी — छलकते हैं।
चावल पर घी की धार उतरती है...
दाल की सतह पर सुनहरी छौंक... तैरती है
बड़े लोग — स्वाद की सरहदें लांघते हैं...
व्यंजनों की रंगत पर बातें होती हैं
जिह्वा का सुख... अनगिनत रूपों में ढलता है
और वहीं... देहलीजÞ के उस पार...
बरामदे की ठंडी जमिन पर...
एक परछाईं खड़ी होती है —
हाथ पसारे हुए... निगाहें टिकी हुई...
भुसे सिकुड़ी देह...
चुपचाप साँस लेती हुई
थालियों की महक उसके भीतर तुफÞान उठाती है
गले में अजीब–सी गाँठ बनती है।
मुँह में पानी भर आता है — पर स्वाद नहीं...
सिर्फÞ पेट भरने की विवशता होती है।
मालकिन चौखट तक आती हैं...
पर देहलीजÞ पार नहीं करतीं।
थाली को थोड़ा झुकाकर... दुर से फेंक देती हैं —
बासी टुकड़े... जली रोटी... बची–खुची सब्जÞी
नौकर... सिर झुकाए खड़ा रहता है
हाथ जोड़े बस कहता है —
मालकिन... मालकिन...
हर स्वर में भुख की एक घुटी हुई चीखÞ होती है
हर पुकार में — निगल लिया गया निवाला... छुपा होता है
उसकी दुनिया — समर्पण से चलती है...
जहाँ कर्तव्य... रोटी से बड़ा होता है
ईश्वर के भोग में... परोसी जाती है कृपा
पर नौकर की थाली में...
सिर्फÞ बचा–खुचा... प्रसाद गिरता है
धर्म कहता है — अन्न ब्रह्म है...
पर भुख के लिए...
यह ब्रह्म भी पराया हो जाता है
घर के भीतर स्वादों की बहार उमड़ती है,
और देहलीजÞ के उस पार —
मैं भुख में भी मानवता का चेहरा नहीं तलाशता अब,
बल्कि सवालों की धार से उसे कुरेदता हुँ
हर निवाले से पुछता हुँ —
“तु क्यों बँटा?“
तेरे भितर करुणा क्यों नहीं?
और फिर थालियों की ओर देखता हुँ —
जहाँ भोजन नहीं, परख की कसौटी रखी होती है
अब मैं थाली नहीं देखता...
मैं उस भुख को देखता हुँ —
जिसे आदत बना दी गई है...
बँटने की...
झुकने की... चुप रहने की
“और तब...
मेरी कविता भी थाली–सी खाली रह जाती है —
जिसमें शब्द नहीं...
बस आदतें परोसी जाती हैं —
झुकने की, चुप रहने की,
और प्रश्न पुछने की मनाही की...