हिन्दीकविता
मुझे बताया गया—
वह कवि है, शब्दों का सौदागर, रानीगंज का रहने वाला
हम मिले, शब्दों का एक पुल बना
कविताएँ सुनी गईं, कविताएँ सुनाई गईं
और इस तरह शब्दों की गठरी बाँधकर
हमने अपनापन चुन लिया
लेकिन अपनापन सिर्फÞ शब्दों से नहीं बनता
कभी–कभी उसकी परख होती है
एक छोटे–से निमंत्रण से
बेटे की शादी थी—
शहनाइयाँ बजीं, आँगन में दीप जलाए गए
और निमंत्रण पत्र बँटने लगे
मुझे नहीं मिला
हाँ, मेरे पड़ोसी को मिला
जो शायद कविताएँ नहीं लिखता था
कहा गया—
मेरी पत्नी ने चुने हैं नाम
हम खÞुद अपने लोगों को नहीं बुला पा रहे
तो क्या अपनापन भी अब चयन सूची में आता है ?
क्या रिश्ते भी अब गिने–चुने नामों में
रखे जाते हैं ?
क्या कविता की दोस्ती इतनी हल्की होती है
कि एक निमंत्रण का भार भी न उठा सके ?
नहीं, मुझे भोजन की भुख नहीं थी
मैंने अपने हिस्से की थाली
कई बार घर पर भी देखी है।
पर हाँ, मुझे उस जगह की भुख थी
जहाँ अपनापन परोसा जाता है
जहाँ शब्दों से बनाए गए रिश्ते
किसी दस्तावेजÞ के मोहताज नहीं होते
अब शब्दों की सरगम बदल गई है
भावों की धारा मुड़ गई है
अब कविताएँ भी उन गलियों का रास्ता नहीं पुछेंगी ।
– रानीगंज, जिल्ला अररिया, बिहार, भारत